अलग अंदाज़ इनके और वो छुपा राजदान है
लगती चोट पे चोट और हम करते नहीं फ़रियाद.
अज़ब अदा इनकी और वो कातिल तीरंदाज है
हर एक निशाना सचोट और हम छुपाते गम सरेआम.
मय है साक़ी भी है सामने वो खड़ा सय्याद है
आग लगी मैख़ाने में हमने मागी दो बुँदे सरकार.
फैलाये सपनों के पंख उड़ता वो परवाज़ है
आवाज़ भी मेरी ना सुन सका कैसा हुआ अनजान.
तुम तक मुझे जो लेके चले ढूढ़ते वो लम्हात है
मेरे गीतों में मेरी गज़लो में वो बस वोही मेरा तलबगार.
रेखा ( सखी )